अमेरिका-पाकिस्तान संबंध: एक नए भू-राजनीतिक त्रिकोण की राह
दक्षिण एशिया का भू-राजनीतिक परिदृश्य गहन और तेज़ बदलावों से गुज़र रहा है। शीत युद्ध और बाद में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध द्वारा दशकों से परिभाषित गठबंधनों के परिचित रूपरेखाएँ अब नई रणनीतिक आवश्यकताओं द्वारा पुनः आकार ले रही हैं। इस बदलाव के केंद्र में है अमेरिका और पाकिस्तान के बीच का जटिल और अक्सर तनावपूर्ण रिश्ता।
कई वर्षों तक यह रिश्ता एक लेन-देन आधारित “मौसमी दोस्ती” के रूप में जाना गया—अफ़ग़ानिस्तान में संघर्षों के दौरान चरम पर पहुँचना और फिर आपसी अविश्वास के दौर में गिर जाना। लेकिन हालिया कूटनीतिक बातचीतें एक संभावित पुनरुत्थान का संकेत देती हैं—एक पुनर्संयोजन जिसे विशेष रूप से नई दिल्ली और बीजिंग में गहरी दिलचस्पी और कुछ चिंता के साथ देखा जा रहा है।
अमेरिका का पाकिस्तान के साथ यह नया संवाद एक शून्य में नहीं हो रहा है। यह तीन प्रमुख कारकों से प्रभावित है:
- अफग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद उत्पन्न स्थिति का प्रबंधन,
- चीन के बढ़ते प्रभाव (जैसे चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर, CPEC) का मुकाबला,
- और क्षेत्रीय आतंकवाद का स्थायी ख़तरा।
यह लेख इन नए प्रयासों के चालक तत्वों, उनके निहितार्थों और संभावित भविष्य की दिशा पर गहराई से नज़र डालता है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: एक रोलरकोस्टर गठबंधन
शीत युद्ध की नींव
यह साझेदारी शीत युद्ध के शुरुआती वर्षों में बनी। पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध एक शक्तिशाली सहयोगी की तलाश में अमेरिका-नेतृत्व वाले SEATO और CENTO गठबंधनों में शामिल होकर सैन्य और आर्थिक मदद हासिल की। इसी दौर ने सेना-से-सेना संबंधों को मजबूत किया, जो आज तक बने हुए हैं।
अफगान-सोवियत युद्ध और मुजाहिदीन का उदय
1979 में सोवियत संघ के अफगानिस्तान आक्रमण ने सहयोग को चरम पर पहुँचा दिया। पाकिस्तान, जनरल ज़िया-उल-हक़ के तहत, अमेरिकी और सऊदी फंडिंग और हथियारों का अहम मार्ग बना। CIA और पाकिस्तान की ISI ने मिलकर काम किया। लेकिन इस सहयोग ने कट्टरपंथी इस्लामी समूहों को मजबूत किया, जो बाद में तालिबान और अल-कायदा में बदल गए—यह दोनों देशों के लिए लंबे समय तक मुसीबत बना।
9/11 के बाद की साझेदारी और उसका क्षरण
9/11 हमलों के बाद पाकिस्तान “मुख्य गैर-NATO सहयोगी” बना। अमेरिका ने अफगानिस्तान युद्ध के लिए पाकिस्तान से लॉजिस्टिक सहयोग माँगा और पाकिस्तान ने दिया। लेकिन जल्द ही अविश्वास गहराता गया। अमेरिका ने पाकिस्तान पर “दोहरी नीति” का आरोप लगाया—एक ओर अमेरिकी मदद लेना और दूसरी ओर अफगान तालिबान को समर्थन देना। 2011 में बिना पाकिस्तान की जानकारी के ओसामा बिन लादेन पर की गई ऐबटाबाद छापेमारी ने दरार को दुनिया के सामने उजागर कर दिया। ट्रंप प्रशासन के दौरान रिश्ते लगभग टूट गए।

हालिया निकटता के चालक कारण
अफगानिस्तान से वापसी के परिणाम
अगस्त 2021 में अमेरिका की वापसी के बाद आतंकवाद और क्षेत्रीय अस्थिरता की स्थिति बनी। अब अमेरिका को पाकिस्तान की ज़रूरत है:
- आतंकवाद-रोधी खुफ़िया जानकारी के लिए, खासकर ISIS-K और अल-कायदा पर।
- क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने के लिए, क्योंकि पाकिस्तान का तालिबान पर प्रभाव है और वहाँ लाखों अफगान शरणार्थी रहते हैं।
चीन और CPEC कारक
चीन की बढ़ती ताकत और CPEC अमेरिका के लिए बड़ी चुनौती है।
- अमेरिका की रणनीति: चीन-पाक रिश्ते को पूरी तरह से एकतरफा बनने से रोकना।
- पाकिस्तान की सोच: अमेरिका से संतुलन बनाकर चीन पर पूरी निर्भरता से बचना और IMF जैसी संस्थाओं से मदद हासिल करना।
पाकिस्तान की घरेलू ज़रूरतें
पाकिस्तान गहरे आर्थिक संकट से जूझ रहा है। IMF और पश्चिमी देशों से मदद पाने के लिए अमेरिका से अच्छे रिश्ते बनाना उसकी मजबूरी है।

भारत का सवाल: एक संवेदनशील पहलू
अमेरिका-भारत साझेदारी हाल के वर्षों में गहरी हुई है। ऐसे में अमेरिका का पाकिस्तान से नज़दीकी बढ़ाना नई दिल्ली के लिए चिंता का विषय है।
- ज़ीरो-सम धारणा: भारत मानता है कि अमेरिका-पाक रिश्ते उसके हितों के खिलाफ जाते हैं।
- आतंकवाद पर मतभेद: भारत के लिए लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसी गुट बड़ी समस्या हैं। अमेरिका यदि पाकिस्तान से सिर्फ ISIS-K पर सहयोग करे और भारत-विरोधी आतंकी संगठनों को नज़रअंदाज़ करे, तो यह नई दिल्ली के लिए अस्वीकार्य है।
- अमेरिकी संतुलन की चुनौती: अमेरिका को भारत को यह विश्वास दिलाना होगा कि पाकिस्तान के साथ उसका सहयोग सीमित और मुद्दा-विशेष पर आधारित है।
स्थायी ख़तरा: आतंकवाद और क्षेत्रीय सुरक्षा
- TTP की चुनौती: अफगान तालिबान की जीत से पाकिस्तान में TTP फिर से मज़बूत हुआ है। यह पाकिस्तान पर हमले करता है लेकिन अफगानिस्तान में सुरक्षित पनाहगाहों से।
- अल-कायदा और ISIS-K: अफगानिस्तान में इनकी सक्रियता अमेरिका और पाकिस्तान दोनों के लिए चिंता का कारण है।
भविष्य की दिशा: सहयोग या टकराव?
- सीमित सहयोग (सबसे संभावित): अफगानिस्तान, आतंकवाद-रोधी खुफ़िया जानकारी और IMF सहायता तक सीमित।
- रणनीतिक टूट (संभावित): यदि पाकिस्तान चीन के और नज़दीक गया या भारत में बड़ा आतंकी हमला हुआ।
- गहरा गठबंधन (असंभव): इसके लिए पाकिस्तान को चीन से दूर होना और अमेरिका को भारत के साथ रिश्ते ढीले करने होंगे—जो व्यावहारिक नहीं है।
निष्कर्ष: एक पुनर्परिभाषित रिश्ता
अमेरिका-पाकिस्तान संबंध अब न तो पुराने जैसे गहरे होंगे और न ही पूरी तरह खत्म होंगे। यह एक नया, सीमित और लेन-देन आधारित रिश्ता होगा।
अमेरिका चीन को रोकना चाहता है, अफगानिस्तान को संभालना चाहता है और भारत के साथ साझेदारी बनाए रखना चाहता है। पाकिस्तान चीन पर निर्भर रहते हुए भी अमेरिका से आर्थिक और कूटनीतिक राहत चाहता है।
इस रिश्ते का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों देश कितनी व्यावहारिक अपेक्षाएँ रखते हैं और कितने सीमित क्षेत्रों में सहयोग कर पाते हैं। अगर सावधानी बरती गई तो यह रिश्ता स्थिर हो सकता है, वरना फिर से अविश्वास की गहराइयों में जा सकता है।