पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा संकट: एक गहन विश्लेषण
पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच फैली 2,600 किलोमीटर लंबी उबड़-खाबड़ सीमा, जिसे ड्यूरंड लाइन कहा जाता है, एक बार फिर एक खतरनाक और बढ़ते हुए संघर्ष का केंद्र बन गई है। जो घटनाएँ शुरू में छिटपुट झड़पों के रूप में थीं, वे अब पूर्ण सैन्य संघर्षों में बदल चुकी हैं, जिसमें पाकिस्तानी सेना, अफगान तालिबान सरकार और उग्रवादी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) शामिल हैं। यह केवल एक सीमा विवाद नहीं है; बल्कि यह ऐतिहासिक शिकायतों, प्रॉक्सी युद्धों, वैचारिक विभाजनों और क्षेत्रीय स्थिरता की गंभीर परीक्षा का एक जटिल जाल है। हालिया झड़पों में दर्जनों लोग मारे गए हैं, हजारों विस्थापित हुए हैं, और दोनों इस्लामी पड़ोसी देशों को एक व्यापक युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया है। संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तुरंत तनाव कम करने की अपील की है।
यह विश्लेषण इस संकट की जटिल परतों को उजागर करेगा। हम ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, प्रमुख पात्रों — जैसे कि टीटीपी के नूर वली محسूद — दक्षिण एशिया के लिए इसके रणनीतिक निहितार्थ, और दोनों देशों को टकराव से दूर लाने के नाजुक कूटनीतिक प्रयासों की चर्चा करेंगे।
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ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: ड्यूरंड लाइन विवाद
वर्तमान संघर्ष को समझने के लिए पहले इतिहास को देखना जरूरी है। इस तनाव की जड़ें 1893 में सर मॉर्टिमर ड्यूरंड, एक ब्रिटिश राजनयिक, और अमीर अब्दुर रहमान खान, अफगानिस्तान के शासक, द्वारा स्थापित की गई ड्यूरंड लाइन में हैं। इस समझौते का उद्देश्य ब्रिटिश भारत की सीमाओं को स्पष्ट करना और रूस के प्रभाव से बचाव के लिए एक बफर ज़ोन बनाना था।
लेकिन इसकी स्थापना के क्षण से ही ड्यूरंड लाइन विवाद का स्रोत बन गई।
अफगानिस्तान की अस्वीकृति:
लगातार अफगान सरकारों ने, जिसमें वर्तमान तालिबान प्रशासन भी शामिल है, कभी भी ड्यूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्यता नहीं दी है। उनका तर्क है कि यह एक औपनिवेशिक विरासत है, जिसने पश्तून और बलूच जनजातियों को मनमाने ढंग से दो हिस्सों में बाँट दिया, जिससे परिवार और जनजातियाँ विभाजित हो गईं।
पाकिस्तान की स्थिति:
पाकिस्तान, जो ब्रिटिश भारत का उत्तराधिकारी राज्य है, ड्यूरंड लाइन को वैध और तय अंतरराष्ट्रीय सीमा मानता है। इस्लामाबाद के लिए, एक परिभाषित और नियंत्रित सीमा राष्ट्रीय संप्रभुता, सुरक्षा, और लोगों व वस्तुओं की आवाजाही के लिए आवश्यक है।
यह मूलभूत असहमति सात दशकों से अधिक समय से द्विपक्षीय संबंधों में कांटे की तरह चुभती रही है। वर्तमान लड़ाई इसी अधूरे ऐतिहासिक विवाद का सबसे हिंसक रूप है।

वर्तमान संघर्ष के प्रमुख खिलाड़ी
यह सीमा संकट तीन पक्षों के बीच का संघर्ष है, जहाँ हर एक अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं का पीछा कर रहा है।
1. इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान (अफगान तालिबान)
2021 में अफगान तालिबान की सत्ता में वापसी ने क्षेत्रीय सुरक्षा संतुलन को पूरी तरह बदल दिया। पाकिस्तान को उम्मीद थी कि एक “मित्रवत” काबुल सरकार उसकी पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करेगी, लेकिन नतीजा इसके उलट हुआ।
वैचारिक समानता बनाम राष्ट्रीय हित:
अफगान तालिबान और टीटीपी दोनों एक ही देओबंदी इस्लामी विचारधारा साझा करते हैं और दोनों ने विदेशी सेनाओं से लड़ाई का इतिहास साझा किया है। अमेरिकी युद्ध के दौरान कई टीटीपी लड़ाकों ने अफगानिस्तान में शरण ली थी।
आश्रय का प्रश्न:
तालिबान सरकार पर आरोप है कि वह अफगानिस्तान की भूमि को टीटीपी के लिए सुरक्षित ठिकाना बनने दे रही है। हालांकि काबुल सरकार सार्वजनिक रूप से इसका खंडन करती है, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार, अफगानिस्तान में टीटीपी के लिए एक “सहज वातावरण” मौजूद है, जिसने इस्लामाबाद के साथ तनाव को चरम पर पहुँचा दिया है।
2. पाकिस्तानी सेना और राज्य
पाकिस्तान अब एक खतरनाक मोड़ पर है, जहाँ वह उसी समूह से खतरे का सामना कर रहा है जिसे उसने कभी रणनीतिक सहयोगी के रूप में इस्तेमाल किया था।
प्रॉक्सी युद्ध की वापसी:
वर्षों तक पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान पर आरोप रहा कि उसने रणनीतिक गहराई प्राप्त करने के लिए अफगान तालिबान जैसे जिहादी समूहों का समर्थन किया। अब इसी पारिस्थितिकी तंत्र से निकला टीटीपी पाकिस्तान के खिलाफ हो गया है।
प्रत्यक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा खतरा:
टीटीपी ने पाकिस्तान में सैकड़ों हमले किए हैं, जिनमें सैन्य चौकियों, नागरिकों और चीनी परियोजनाओं को निशाना बनाया गया है। नतीजतन, पाकिस्तानी सेना ने अधिक आक्रामक रुख अपनाया है और सीमा पार हवाई हमले तथा तोपखाने का इस्तेमाल शुरू कर दिया है।
3. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) और नूर वली محسूद
इस संघर्ष के केंद्र में टीटीपी और इसके वर्तमान नेता नूर वली محسूद हैं। उनका किरदार इस संकट को समझने की कुंजी है।

नूर वली محسूद: सीमा की दरारों का फायदा उठाने वाला सरगना
नूर वली محسूद, जिन्हें मुफ्ती नूर वली के नाम से भी जाना जाता है, 2009 में संस्थापक बैतुल्लाह محسूद की मौत के बाद टीटीपी के नेता बने। वे एक पूर्व पत्रकार और धार्मिक विद्वान हैं, लेकिन एक चालाक और निर्मम रणनीतिकार साबित हुए हैं।
एकीकरण और पुनर्गठन:
उनके नेतृत्व में, पाकिस्तान की सैन्य कार्रवाइयों के बाद बिखरा हुआ टीटीपी फिर से एकजुट हुआ। उन्होंने कई विभाजित गुटों को एक छतरी के नीचे लाकर एक सुसंगठित और ताकतवर संगठन खड़ा किया।
अफगान सत्ता के शून्य का फायदा:
अमेरिकी वापसी और तालिबान की जीत ने محسूद को अभूतपूर्व अवसर दिया। उन्होंने अपने लड़ाकों को अफगानिस्तान में स्थानांतरित कर दिया, जहाँ वे अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं और सीमा पार से हमले कर सकते हैं।
असममित युद्ध के माहिर:
उनकी रणनीति है पाकिस्तान को उकसाना ताकि वह अत्यधिक प्रतिक्रिया दे। पाकिस्तानी हमलों से अफगान तालिबान कठिन स्थिति में आ जाता है—एक ओर वैचारिक भाईचारा, दूसरी ओर राजनयिक दबाव। محسूद इस तनाव का फायदा उठाकर दोनों देशों के बीच खाई गहरी करते हैं।
खुले युद्ध की ओर बढ़ता चक्र: बढ़ते तनाव की समयरेखा
2024 के अंत और 2025 की शुरुआत में यह तनाव खुले संघर्ष में बदल गया।
टीटीपी के हमले:
पाकिस्तानी सैन्य चौकियों पर टीटीपी के बढ़ते हमले, जिनमें दर्जनों जवान मारे गए।
पाकिस्तानी जवाबी कार्रवाई:
पाकिस्तान ने अफगान प्रांतों जैसे खोस्त और पक्तिका में हवाई हमले किए, जिन्हें उसने टीटीपी ठिकाने बताया।
अफगान तालिबान की प्रतिक्रिया:
तालिबान ने इसे संप्रभुता का उल्लंघन बताया और सीमा पर भारी हथियारों से जवाबी कार्रवाई की।
“पैंट्स परेड” घटना:
सोशल मीडिया पर वायरल हुई तस्वीरों और वीडियो में अफगान लड़ाकों को पाकिस्तानी सैनिकों के यूनिफॉर्म और निजी वस्तुएँ दिखाते देखा गया। एक तस्वीर में तालिबान लड़ाका पाकिस्तानी सैनिक की पैंट को ट्रॉफी की तरह लहराता दिखा — जिसने पाकिस्तान की सेना की प्रतिष्ठा को गहरा झटका दिया।

क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव
भारत की स्थिति:
भारत इस स्थिति पर बारीकी से नज़र रखे हुए है। उसने अफगान तालिबान सरकार का समर्थन किया है और पाकिस्तान पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है, इसे उसकी “नीतियों की वापसी” बताया है।
चीन की चिंताएँ:
चीन के अरबों डॉलर के निवेश सीपेक (CPEC) में लगे हैं। सीमा अस्थिरता से उसके प्रोजेक्ट और कर्मी दोनों खतरे में हैं। बीजिंग दोनों पक्षों पर तनाव घटाने का दबाव बना रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की अपील:
यूएन महासचिव ने तत्काल और स्थायी युद्धविराम की अपील की है। लंबा संघर्ष मानवीय संकट, शरणार्थियों की नई लहर और ISIS-K जैसे आतंकी समूहों के लिए जगह बना सकता है।
मानवीय संकट: युद्ध की असली कीमत
नागरिकों का विस्थापन:
सीमा के पास रहने वाले हजारों परिवार अपने घर छोड़ने को मजबूर हुए हैं। वे अस्थायी शिविरों में बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं।
जीवन और आजीविका का नुकसान:
दर्जनों नागरिक मारे गए हैं, और व्यापार ठप हो गया है। किसानों और व्यापारियों की रोज़ी-रोटी छिन गई है।
भय में पली पीढ़ी:
सीमा के दोनों ओर के बच्चे भय और हिंसा के माहौल में बड़े हो रहे हैं। शिक्षा बाधित है और भविष्य अनिश्चित।

समाधान की खोज: कूटनीति और शांति का रास्ता
क्या इस हिंसा के चक्र से बाहर निकलने का कोई रास्ता है?
केवल बातचीत ही स्थायी समाधान है।
सीधी वार्ता:
पाकिस्तान और अफगान तालिबान के बीच बिना शर्त और सतत संवाद जरूरी है।
अंतरराष्ट्रीय दबाव:
चीन और क़तर जैसे देशों को तालिबान पर दबाव डालना चाहिए कि वे टीटीपी गतिविधियों पर सख्ती करें।
पाकिस्तान की आंतरिक समीक्षा:
उसे अपने गैर-राज्य अभिनेताओं पर आधारित विदेश नीति दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करना होगा।
क्षेत्रीय सहयोग:
एक दीर्घकालिक समाधान के लिए व्यापक क्षेत्रीय ढाँचे की आवश्यकता है जिसमें अन्य हितधारक भी शामिल हों।
निष्कर्ष: वैश्विक प्रभावों वाला खतरनाक गतिरोध
पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा संघर्ष केवल एक स्थानीय झड़प नहीं है; यह इस बात का प्रतीक है कि औपनिवेशिक विरासत, राज्यकला की विफलताएँ और उग्रवाद कैसे मिलकर एक विनाशकारी स्थिति पैदा कर सकते हैं।
नूर वली محسूद और टीटीपी ने इस्लामाबाद और काबुल के बीच वैचारिक दरारों का लाभ उठाकर दोनों को युद्ध के मुहाने पर ला दिया है।
एक पाकिस्तानी सैनिक की “पैंट्स परेड” की वायरल तस्वीर केवल प्रचार जीत नहीं है, बल्कि यह उस अपमान और हताशा का प्रतीक है जो इस संघर्ष को भड़का रही है।
यूएन की अपीलें आवश्यक हैं, पर अपर्याप्त। असली समाधान साहसिक राजनीतिक इच्छाशक्ति और ऐतिहासिक घावों को भरने की प्रक्रिया में है।
दक्षिण एशिया की स्थिरता अब इस पर निर्भर है कि क्या कूटनीति युद्ध से पहले जीत सकती है या नहीं।
दुनिया देख रही है — उम्मीद के साथ।