Sonam Wangchuk’s Climate Fast: A Fight for Ladakh’s Future

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Sonam Wangchuk's Climate Fast

Sonam Wangchuk’s Climate Fast: लद्दाख के भविष्य की लड़ाई

Ladakh's Future

21 दिनों तक लद्दाख की कड़ाके की ठंड में एक व्यक्ति साधारण से तंबू में बैठा रहा, केवल नमक और पानी पर जीवित। यह कोई धार्मिक तपस्या नहीं थी, बल्कि एक गहरी राजनीतिक और पर्यावरणीय अभिव्यक्ति थी। वह व्यक्ति थे सोनम वांगचुक — प्रसिद्ध नवप्रवर्तक और शिक्षा सुधारक। उनका “क्लाइमेट फास्ट” भारत के सबसे संवेदनशील पारिस्थितिकी क्षेत्रों में से एक, लद्दाख के भविष्य पर एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय बहस को जन्म दे चुका है।

वांगचुक का यह विरोध चार साल की उस लड़ाई का परिणाम है जिसकी शुरुआत अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद हुई। इस बदलाव से जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक नक्शा तो बदल गया, लेकिन लद्दाख को बिना विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। लद्दाखियों के लिए यह पल आशा लेकर आया था — अधिक स्वायत्तता और तेज़ विकास का वादा। लेकिन यह आशा धीरे-धीरे चिंता में बदल गई। नौकरी की सुरक्षा, ज़मीन के अधिकार और पर्यावरण संरक्षण के वादे, प्रदर्शनकारियों के अनुसार, अब तक अधूरे ही रह गए हैं।

यह ब्लॉग पोस्ट लद्दाख में चल रहे आंदोलन की गहराई में उतरता है। इसमें सोनम वांगचुक के इस चरम विरोध के पीछे की प्रेरणा, राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग, ज़मीनी तनाव, और विकास व पारिस्थितिकी संरक्षण के बीच संतुलन की लड़ाई को समझाया गया है।


सोनम वांगचुक कौन हैं? असली ‘फुंसुख वांगडू’

नवप्रवर्तक से प्रतीक तक

सोनम वांगचुक का नाम राष्ट्रीय स्तर पर तब गूंजा जब वे बॉलीवुड फिल्म 3 Idiots के किरदार फुंसुख वांगडू की प्रेरणा बने। लेकिन उनकी असली ज़िंदगी की उपलब्धियाँ कहीं अधिक प्रेरणादायक हैं। वे SECMOL (Students’ Educational and Cultural Movement of Ladakh) और HIAL (Himalayan Institute of Alternatives, Ladakh) के संस्थापक हैं। उनका काम शिक्षा सुधार और ठंडे रेगिस्तान की जलवायु के अनुकूल सतत विकास पर केंद्रित रहा है।

उनके नवाचार, जैसे Ice Stupa (कृत्रिम ग्लेशियर), जो जल संकट का समाधान देता है, उन्हें वैश्विक पहचान दिला चुके हैं, जिसमें प्रतिष्ठित Rolex Award for Enterprise भी शामिल है। यही पृष्ठभूमि उनकी मौजूदा लड़ाई को समझाती है — यह केवल राजनीति नहीं, बल्कि उनके जीवनभर के मिशन का हिस्सा है: तर्कसंगत और सतत तरीकों से लद्दाख के भविष्य की रक्षा।

अनिच्छुक आंदोलनकारी

वांगचुक अक्सर कहते हैं कि वे इंजीनियर और शिक्षक हैं, न कि राजनेता। लेकिन लद्दाख की नाज़ुक पारिस्थितिकी और अनोखी संस्कृति पर मंडरा रहे अस्तित्व के खतरे ने उन्हें आंदोलन के रास्ते पर ला खड़ा किया। वे विवेकपूर्ण असहमति की आवाज़ हैं, जिनका सम्मान देशभर में होता है। जब वे पर्यावरणीय खतरों पर बोलते हैं, लोग ध्यान से सुनते हैं, क्योंकि उनका जीवन व्यावहारिक और पारिस्थितिक समाधान को समर्पित रहा है।


आंदोलन का दिल: अधूरे वादे और बढ़ती आशंकाएँ

दो मुख्य माँगें

यह आंदोलन, जिसे Leh Apex Body (LAB) और Kargil Democratic Alliance (KDA) जैसे समूह चला रहे हैं, दो अहम माँगों पर टिका है:

  1. लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा: वर्तमान में बिना विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण, लद्दाख सीधे केंद्र सरकार और लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा शासित है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि इससे उन्हें लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और अपनी शासन व्यवस्था में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं मिलता। इसलिए वे एक निर्वाचित सरकार चाहते हैं।
  2. छठी अनुसूची के तहत सुरक्षा: यह सबसे अहम माँग है। छठी अनुसूची में आदिवासी क्षेत्रों को विशेष स्वायत्तता मिलती है, जिससे वे ज़मीन, जंगल, पानी और कृषि पर कानून बना सकते हैं।
    लद्दाख की आदिवासी बहुल आबादी को इसमें शामिल करने से उनकी ज़मीन और संसाधन बाहरी औद्योगिक व व्यावसायिक शोषण से सुरक्षित रहेंगे।

अभी क्यों अहम है यह माँग

अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद लद्दाख के नेताओं को आश्वासन दिया गया था कि उनकी जनसंख्या, पर्यावरण और संस्कृति की रक्षा होगी। संसद की एक समिति ने भी लद्दाख को छठी अनुसूची का दर्जा देने की सिफारिश की थी। लेकिन कोई ठोस कदम न उठने से डर बढ़ गया है कि बिना सुरक्षा उपायों के लद्दाख बड़े औद्योगिक प्रोजेक्ट्स और बाहरी दबाव का शिकार हो जाएगा, जिससे स्थानीय आदिवासी हाशिए पर चले जाएंगे।


तनावग्रस्त इलाका: कर्फ्यू, झड़पें और संयम की पुकार

हिंसा की चिंगारी

शांति से चल रहे प्रदर्शनों में तब तनाव बढ़ गया जब मार्च निकालने की कोशिश में प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों के बीच झड़पें हुईं। कई इलाकों में कर्फ्यू और इंटरनेट बंदी लगानी पड़ी। इस दौरान 23 वर्षीय छात्र की मौत ने आंदोलन को और गंभीर बना दिया। सुरक्षा घेरे में शवों का अंतिम संस्कार करवाना आंदोलन की ऊँची कीमत को दर्शाता है।

राजनीतिक आवाज़ें

लद्दाख की स्थिति पर राजनीतिक नेताओं की प्रतिक्रियाएँ भी सामने आईं। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि मौजूदा अशांति सरकार के अपने अधूरे वादों का परिणाम है और इसके लिए विपक्ष को दोष देना गलत है। सोनम वांगचुक ने भी यही कहा कि केंद्र सरकार अपनी नाकामी से ध्यान हटाने की कोशिश कर रही है। इससे प्रदर्शनकारियों की माँगों को और मजबूती मिली है।


सोनम वांगचुक का क्लाइमेट फास्ट: अहिंसक त्याग

रणनीति और संदेश

21 दिन का यह उपवास महात्मा गांधी की परंपरा से प्रेरित था। वांगचुक ने नमक और पानी पर जीवित रहकर तीन संदेश दिए:

  • लद्दाख की नाज़ुकता का प्रतीक: उनकी शारीरिक कमजोरी ने लद्दाख की पारिस्थितिकी की नाज़ुकता को दर्शाया।
  • राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करना: उनकी पहचान ने इस मुद्दे को मुख्यधारा मीडिया से नज़रअंदाज़ होने से बचाया।
  • नैतिक अपील: यह आंदोलन सरकार और जनता की अंतरात्मा को झकझोरने की कोशिश थी।

गिरफ्तारी की आशंका

उपवास के दौरान उन्होंने आरोप लगाया कि उन पर झूठे मुकदमे लगाकर गिरफ्तार किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि अधिकारियों द्वारा हथियार या पैसे रखकर उन्हें फँसाने की कोशिश की जा सकती है। इस आरोप ने जनता को पहले से आगाह कर दिया और प्रशासन के प्रति अविश्वास को उजागर किया।


पर्यावरणीय अनिवार्यता: क्यों लद्दाख अलग है

एक नाज़ुक पारिस्थितिकी संकट में

लद्दाख ठंडा रेगिस्तान है और हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र का हिस्सा है। यह लाखों लोगों के लिए जल स्रोत और जैव विविधता का केंद्र है, लेकिन जलवायु परिवर्तन से बेहद संवेदनशील है।

बिना स्थानीय नियंत्रण के विकास से खतरे:

  • ग्लेशियर पिघलना
  • पानी की कमी
  • जैव विविधता का नुकसान (जैसे स्नो लेपर्ड और तिब्बती हिरण)

असतत विकास का डर

लद्दाखी लोग आशंका जताते हैं कि अगर छठी अनुसूची नहीं मिली तो लद्दाख भी उत्तराखंड और हिमाचल की तरह असतत विकास की मार झेलेगा — भूस्खलन, बाढ़ और पानी के संकट के रूप में।


आगे का रास्ता: संवाद या गतिरोध?

वांगचुक ने उपवास ख़त्म करते हुए चेतावनी दी कि अगर 7 अप्रैल तक ईमानदार संवाद शुरू नहीं हुआ तो आंदोलन और तेज़ होगा। अब केंद्र सरकार के पास विकल्प हैं:

  • औपचारिक वार्ता शुरू करना
  • उच्चस्तरीय समिति बनाना
  • छठी अनुसूची में संशोधन कर संवैधानिक समाधान देना

भारत के लिए दाँव

यह संघर्ष केवल लद्दाख का नहीं, पूरे भारत के लिए अहम है।

  • पर्यावरणीय शासन की परीक्षा
  • आदिवासी अधिकारों की रक्षा
  • लोकतांत्रिक संवाद पर विश्वास

निष्कर्ष: हिमालय की आत्मा की लड़ाई

सोनम वांगचुक का क्लाइमेट फास्ट अब केवल स्थानीय विरोध नहीं रहा, यह पर्यावरण के प्रति हमारी सोच को बदलने का प्रतीक बन चुका है। लद्दाख के लोग विशेषाधिकार नहीं, बल्कि अपने घर और पर्यावरण की रक्षा के उपकरण माँग रहे हैं।

उनकी लड़ाई, भारत की लड़ाई है। यह तय करने की लड़ाई कि विकास किस दिशा में जाएगा — पर्यावरणीय संतुलन को सम्मान देकर या उसे अनदेखा करके। आने वाले दिनों में इस संकट का हल केवल लद्दाख का नहीं, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक और पर्यावरणीय चेतना का चेहरा तय करेगा।

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