भारत, चीन पर आरोप: तेल खरीद के ज़रिए रूस की जंग को फंड कर रहे हैं? पूरी हकीकत

भूमिका
सितंबर 2025 में 80वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक चौंकाने वाला दावा किया। उन्होंने कहा कि भारत और चीन रूस से तेल खरीद कर यूक्रेन युद्ध के “मुख्य फंडर” बन गए हैं।
यह बयान तुरंत ही कूटनीतिक, आर्थिक और राजनीतिक बहस का विषय बन गया। भारत ने इन आरोपों को “अनुचित” बताया और ऊर्जा सुरक्षा को ज़रूरी बताया। चीन ने कहा कि उसका तेल आयात अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के दायरे में है और इसका मतलब युद्ध को सीधा वित्तपोषित करना नहीं है। वहीं अमेरिका ने भारतीय सामान पर भारी टैरिफ़ लगा दिए।
इस लेख में हम देखेंगे — ट्रम्प ने क्या कहा, डेटा क्या बताता है, भारत-चीन का पक्ष क्या है, और इसके भू-राजनीतिक नतीजे क्या हो सकते हैं।
1. दावा: ट्रम्प ने क्या कहा?
बयान
ट्रम्प ने कहा कि चीन और भारत रूस से तेल खरीदकर यूक्रेन युद्ध के प्राथमिक वित्तपोषक बन गए हैं। उन्होंने यूरोपीय देशों को भी निशाना बनाया कि कुछ NATO सदस्य भी रूस से ऊर्जा और उत्पाद लेना जारी रखे हुए हैं।
टैरिफ़ का जवाब
इसके साथ ही ट्रम्प प्रशासन ने भारतीय उत्पादों पर 25% दंडात्मक टैरिफ़ लगाया (कुछ वस्तुओं पर कुल टैरिफ़ 50% तक पहुँच गया)। अमेरिका का कहना है कि यह दबाव बनाने के लिए है ताकि भारत रूसी तेल की खरीद कम करे।
2. डेटा क्या बताता है: तेल व्यापार और हिस्सेदारी
भारत की हिस्सेदारी
Centre for Research on Energy and Clean Air (CREA) के अनुसार, युद्ध शुरू होने (2022) से भारत ने रूस के कच्चे तेल निर्यात का 20% से अधिक खरीदा है।
चीन की तुलना
डॉलर वैल्यू में चीन की खरीद भारत से कहीं अधिक है। हालाँकि भारत का हिस्सा भी उल्लेखनीय है और 2022 के बाद इसमें तेज़ी आई है।
ट्रेंड्स
- रूस से आयात भारत के कुल तेल आयात में बड़ी हिस्सेदारी बन गया है।
- डिस्काउंटेड प्राइस और वैकल्पिक भुगतान तरीक़ों ने यह व्यापार आसान बनाया।
भारत का पक्ष
भारत ने कहा कि यह उसकी ऊर्जा सुरक्षा के लिए ज़रूरी है। सस्ते आयात घरेलू उद्योग और जनता के लिए अनिवार्य हैं।
चीन का पक्ष
चीन का कहना है कि उसका व्यापार पुराने कॉन्ट्रैक्ट्स और अंतर्राष्ट्रीय नियमों के तहत है। तेल आयात सीधे युद्ध फंडिंग नहीं है।
Sources: The Economic Times, The Times of India, Wikipedia

3. “Funding a War” का मतलब क्या है?
- सीधा वित्तपोषण: हथियार, गोला-बारूद, सैनिक मदद।
- अप्रत्यक्ष वित्तपोषण: तेल जैसी वस्तुएँ खरीदना, जिससे रूस को राजस्व मिलता है।
मुख्य सवाल:
- तेल से मिलने वाला राजस्व कितने प्रतिशत रक्षा पर खर्च होता है?
- क्या यह पैसा सामाजिक कार्यक्रमों या कर्ज़ चुकाने में भी जाता है?
4. दावे के पक्ष और विपक्ष
पक्ष में तर्क
- भारत-चीन की बड़ी ख़रीद से रूस को भारी राजस्व मिल रहा है।
- यही राजस्व युद्ध को लंबा खींचने में मददगार हो सकता है।
- अमेरिकी टैरिफ़ यह दिखाते हैं कि वॉशिंगटन इसे गंभीरता से लेता है।
विपक्ष में तर्क
- ऊर्जा सुरक्षा विकासशील देशों के लिए ज़रूरी है।
- तेल ख़रीदना अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के हिसाब से अवैध नहीं है।
- रूस का बजट पारदर्शी नहीं है; तेल का पैसा केवल रक्षा पर ही जाए, यह सिद्ध नहीं।
5. प्रतिक्रियाएँ
- भारत: आरोपों को खारिज किया, कहा यह हमारी ऊर्जा ज़रूरत है।
- चीन: सामान्य प्रतिक्रिया, पुराने कॉन्ट्रैक्ट और कानूनों की बात।
- अमेरिका: टैरिफ़ और पाबंदियों के ज़रिए दबाव बनाने की रणनीति।
- अन्य देश: यूरोपीय और NATO देश भी आलोचना झेल रहे हैं क्योंकि वे भी कहीं-न-कहीं रूसी ऊर्जा ले रहे हैं।
6. भू-राजनीतिक और आर्थिक असर
भारत और चीन
- पश्चिमी देशों से रिश्तों में तनाव।
- वैकल्पिक तेल स्रोत ढूँढने की चुनौती।
- घरेलू महँगाई और उद्योग पर असर।
रूस
- निरंतर राजस्व से युद्ध जारी रखने की क्षमता।
- पश्चिमी पाबंदियों का असर कम होना।
अमेरिका और पश्चिम
- यह साबित करना कि पाबंदियाँ तभी असरदार होंगी जब बड़े ख़रीदार साथ दें।
- ऊर्जा सुरक्षा के लिए नई रणनीतियाँ बनाना।
वैश्विक ऊर्जा बाज़ार
- तेल की कीमतों में अस्थिरता।
- शिपिंग और इंश्योरेंस में दिक़्क़तें।
7. कानूनी और नैतिक प्रश्न
- क्या तेल ख़रीदना नैतिक रूप से युद्ध को समर्थन देना है?
- अंतर्राष्ट्रीय कानून व्यापार को वैध मानता है जब तक वह पाबंदी के दायरे में न हो।
- रूस का बजट पारदर्शी न होने से यह तय करना मुश्किल है कि पैसा कहाँ खर्च हो रहा है।
8. संभावित परिदृश्य
- अमेरिका टैरिफ़ और बढ़ा सकता है।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कड़े कदम उठ सकते हैं।
- भारत-चीन वैकल्पिक स्रोत तलाश सकते हैं।
- रूस नए ख़रीदारों की तलाश करेगा।
9. दावे की मज़बूती का आकलन
तथ्य यह है कि भारत-चीन ने रूस से बड़ी मात्रा में तेल ख़रीदा है और इससे रूस को राजस्व मिला है।
लेकिन “युद्ध का प्राथमिक फंडर” कहना क़ानूनी और नैतिक दृष्टि से जटिल है। खरीद को “फंडिंग” कहना सीधी सच्चाई नहीं, बल्कि राजनीतिक व्याख्या है।
10. आगे क्या देखना होगा
- CREA और IEA जैसी संस्थाओं की रिपोर्ट।
- अमेरिका और यूरोप के नए कदम।
- भारत-चीन की घरेलू नीतियाँ।
- तेल बाज़ार में नए रुझान।
निष्कर्ष
भारत और चीन के रूस से तेल ख़रीदने के कारण यह कहना कि वे “युद्ध के प्राथमिक फंडर” हैं, आंशिक रूप से सही है — क्योंकि राजस्व रूस को जाता है।
लेकिन इसको युद्ध का सीधा वित्तपोषण कहना जटिल और विवादास्पद है। ऊर्जा सुरक्षा, वैश्विक राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय कानून सभी इसे और पेचीदा बनाते हैं।

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